हमारी शिक्षा व्यवस्था और सामाजिक तानाबाना हमें आगे बढ़ने और तेज़ भागने के लिए उत्प्रेरक का काम करता है। इसी परिवेश में हम भी इस दौड़ में शामिल हो जाते हैं और कुछ दूरी तक भागने के बाद, उन लोगों को पीछे छोड़ देते हैं, जो हमसे बहुत पहले से दौड़ रहे थे और अब थोड़ा धीमे हो चुके थे।
उनसे आगे निकलने के बाद हमें लगता है कि हमें आगे रहने का हुनर आ गया है। लेकिन कुछ महीनों या वर्षों बाद, जब हम अपनी दौड़ में थोड़ा थककर ठहरने लगते हैं, तो देखते हैं कि कोई नया, अनुभवहीन व्यक्ति, जो इस दौड़ में हमसे बहुत देर से शामिल हुआ था, हमसे आगे निकल गया।
ज़िंदगी में न तो वह ऊर्जा हमेशा बनी रहती है जो हमारे युवा वर्षों में थी, और न ही वह गति जो जीवन की दौड़ के शुरुआती दौर में थी।
जब हम दूसरों से पिछड़ने लगते हैं, तो हम समय, भाग्य, समाज, या नई पीढ़ी को दोष देने लगते हैं। क्योंकि हमने यह कभी सीखा ही नहीं कि ज़िंदगी की इस दौड़ में हम महज़ कुछ पलों के लिए ही प्रतिभागी हैं। हमने भी किसी की जगह ली थी, और कल हमारी जगह कोई और होगा।
ज़िंदगी की दौड़ में आगे रहने और उस बढ़त को हमेशा के लिए अपना समझने का भ्रम जब टूटता है, तो व्यक्ति अपने दुःख में यह भी भूल जाता है कि उसके पास अब भी बहुत कुछ है। इसलिए जीने का सही तरीका यह है कि इस दौड़ का हिस्सा ही न बना जाए। अपना काम ईमानदारी से करें और हार-जीत के द्वंद्व से दूर रहें।
सफलता केवल बाहरी उपलब्धियों में नहीं, बल्कि खुद को समझने और व्यक्तिगत विकास में भी है। हर दिन का अनुभव हमें कुछ नया सिखाता है, और यही असली सफलता है।
प्रतियोगिता और प्रतिस्पर्धा, केवल एक व्यावसायिक मस्तिष्क की उपज हैं, जो ज़्यादा और ज़्यादा पाना चाहता है, किसी भी तरह। जीवन को एक यात्रा समझें, जहाँ मंजिल से ज्यादा महत्वपूर्ण रास्ता है!